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प्रशंसा की इच्छा के बिना प्यार कैसे व्यक्त करें?

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प्यार की सच्ची भाषा: बिना प्रशंसा की इच्छा के प्रेम कैसे करें?
साधक,
तुम्हारा यह प्रश्न बहुत ही कोमल और गहरा है। प्यार में प्रशंसा की लालसा एक सामान्य मानवीय भावना है, पर क्या हम सचमुच बिना किसी अपेक्षा के प्रेम कर सकते हैं? यह समझना ही आध्यात्मिक परिपक्वता की निशानी है। चलो इस यात्रा में हम गीता के अमृत शब्दों से मार्ग पाते हैं।

🕉️ शाश्वत श्लोक

अध्याय 12, श्लोक 15
"यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥"

हिंदी अनुवाद:
जिस व्यक्ति से संसार का कोई कष्ट नहीं होता, और वह संसार को कष्ट नहीं पहुंचाता; जो न तो प्रसन्नता से अधिक उछलता है, न क्रोध से, न भय से, न बेचैनी से; ऐसा व्यक्ति मेरे प्रिय है।
सरल व्याख्या:
सच्चा प्रेम वह है जो बिना किसी द्वेष, लालसा या अपेक्षा के होता है। जब हम बिना स्वार्थ के, बिना प्रशंसा की चाह के प्रेम करते हैं, तब हमारा प्रेम पवित्र और स्थायी होता है।

🪬 गीता की दृष्टि से मार्गदर्शन

  • स्वयं से प्रेम करो: जब तुम अपने अंदर पूर्णता और स्वीकृति पाते हो, तब बाहर के प्रेम की चाह कम होती है।
  • निष्काम भाव अपनाओ: प्रेम करो बिना फल की चिंता किए — जैसे सूर्य बिना अपेक्षा के प्रकाश देता है।
  • मन की स्थिरता: अपने मन को प्रशंसा की चाह से ऊपर उठाओ, जिससे प्रेम की ऊर्जा शुद्ध और स्वच्छ होती है।
  • सर्व में परमात्मा देखो: जब तुम प्रेम में ईश्वर को देखते हो, तो प्रशंसा की इच्छा अपने आप कम हो जाती है।
  • स्वयं को स्वतंत्र करो: प्रेम में स्वतंत्रता और सम्मान देना भी प्रेम की सच्चाई है, जो बिना अपेक्षा के होता है।

🌊 मन की हलचल

तुम्हारे मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है — "क्या मेरा प्रेम अधूरा है यदि मैं प्रशंसा की इच्छा नहीं रखता?" या "क्या बिना प्रशंसा के मेरा प्यार स्वीकार होगा?" यह डर और उलझन तुम्हारे मन की गहराई से आई है। जान लो कि सच्चा प्रेम वही है जो बिना किसी बंधन या अपेक्षा के खिलता है।

📿 कृष्ण क्या कहेंगे...

"हे प्रिय, प्रेम का असली स्वरूप तो निःस्वार्थ है। जब तुम बिना किसी लालसा के प्रेम करोगे, तो तुम्हारा हृदय मुक्त होगा। प्रशंसा की चाह तुम्हें बंधन में डालती है, उसे छोड़ दो। प्रेम का आनंद स्वयं में है, दूसरों की प्रतिक्रिया में नहीं।"

🌱 एक छोटी सी कहानी / उपमा

एक बार एक बागवान ने अपने बगीचे में एक सुंदर गुलाब का पौधा लगाया। वह रोज़ उसकी देखभाल करता, उसे पानी देता, उसकी खुशबू का आनंद लेता, पर कभी भी यह उम्मीद नहीं करता कि गुलाब उसे कोई पुरस्कार देगा। वह जानता था कि गुलाब खिलने का अपना समय है और उसकी सुंदरता अपने आप में पूर्ण है। उसी तरह, प्रेम भी अपने आप में पूर्ण होता है, बिना किसी प्रशंसा की चाह के।

✨ आज का एक कदम

आज से, अपने प्रेम को एक उपहार समझो — बिना किसी अपेक्षा के। जब भी तुम्हें लगे कि तुम प्रशंसा की चाह कर रहे हो, तो अपने मन को धीरे से याद दिलाओ: "मैं प्रेम करता हूँ, इसलिए कि यह मेरा स्वभाव है।"

🧘 अंदर झांके कुछ क्षण

  • क्या मैं अपने प्रेम में स्वार्थ या अपेक्षा को पहचान सकता हूँ?
  • क्या मैं प्रेम को एक स्वतंत्र ऊर्जा के रूप में स्वीकार कर सकता हूँ, जो बिना किसी बंधन के बहती है?

प्रेम की स्वतंत्रता की ओर पहला कदम
प्रिय, तुम अकेले नहीं हो। हर प्रेमी के मन में कभी न कभी प्रशंसा की चाह उठती है। पर गीता हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम वह है जो स्वयं में पूर्ण हो, जो बिना किसी अपेक्षा के खिलता रहे। इस समझ के साथ चलो, अपने प्रेम को मुक्त करो और अनुभव करो उसकी शाश्वत सुंदरता।
शुभकामनाएँ।
— तुम्हारा आध्यात्मिक मार्गदर्शक

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