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गीता के अनुसार वृद्धावस्था में हमारा मनोवृत्ति कैसी होनी चाहिए?

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गीता के अनुसार वृद्धावस्था में हमारा मनोवृत्ति कैसी होनी चाहिए?

जीवन के अंतिम चरण में भी उज्जवल मनोवृत्ति — वृद्धावस्था की दिव्यता
साधक, जब जीवन का यह सुनहरा समय आता है, तब मन में अनेक भाव, चिंताएँ और प्रश्न उठते हैं। वृद्धावस्था केवल शरीर का झुर्रियों से भर जाना नहीं, बल्कि आत्मा के अनुभवों का संचित खजाना है। आइए, भगवद गीता की दिव्य दृष्टि से इस अवस्था में मनोवृत्ति कैसी होनी चाहिए, उसे समझते हैं।

🕉️ शाश्वत श्लोक

अध्याय 2, श्लोक 14:
"मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥"

हिंदी अनुवाद:
हे कौन्तेय! ये सुख-दुःख, गर्म-ठंड के स्पर्श मात्र हैं, जो आते-जाते रहते हैं, अस्थायी हैं। इसलिए हे भारतवंशी, तुम उन्हें सहन करो।
सरल व्याख्या:
जीवन में सुख-दुःख और शीत-उष्ण की अनुभूतियाँ अस्थायी हैं। वृद्धावस्था में भी ये अनुभव आते हैं, पर हमें उनका सामना धैर्य और सहनशीलता से करना चाहिए। मन को स्थिर और शांत रखना ही सच्ची बुद्धिमत्ता है।

🪬 गीता की दृष्टि से मार्गदर्शन

  1. अस्थिरता को स्वीकार करना: जीवन के इस चरण में शरीर और मन में परिवर्तन स्वाभाविक हैं। गीता हमें सिखाती है कि इन बदलावों को स्वीकार कर संतुलन बनाए रखना चाहिए।
  2. धैर्य और सहनशीलता: सुख-दुःख के चक्र से विचलित न होकर, उन्हें सहन करना मन की स्थिरता को बढ़ाता है।
  3. आत्मा की अमरता का बोध: शरीर वृद्ध होता है, पर आत्मा नित्य और अविनाशी है। इसी ज्ञान से मनोबल बढ़ता है।
  4. कर्तव्य और संयम: वृद्धावस्था में भी अपने कर्तव्यों का पालन और संयम बनाए रखना आवश्यक है।
  5. अहंकार का त्याग: स्वयं को केवल शरीर या उम्र से जोड़कर न देखें, बल्कि आत्मा के दिव्य स्वरूप को पहचानें।

🌊 मन की हलचल

"मैं अब कमजोर हो रहा हूँ, क्या मेरा जीवन अब खत्म हो रहा है? क्या मेरी उपस्थिति का कोई महत्व रह जाएगा? क्या मैं अकेला पड़ जाऊंगा?"
ऐसे विचार स्वाभाविक हैं। पर याद रखिए, आपकी आत्मा न तो बूढ़ी होती है, न ही कमज़ोर। यह शरीर का एक रूप है, जो अंततः लौट जाएगा। आपके अनुभव, प्रेम, और ज्ञान अमर हैं।

📿 कृष्ण क्या कहेंगे...

"हे प्रिय, यह शरीर तुम्हारा असली स्वरूप नहीं है। यह एक वाहन मात्र है। जैसे एक पुराना वस्त्र बदलना पड़ता है, वैसे ही शरीर भी बदलता रहता है। तुम वह अविनाशी आत्मा हो। इस जीवन के अंतिम चरण में भी अपने मन को स्थिर रखो, अपने कर्मों में लगन रखो और शांति की ओर बढ़ो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।"

🌱 एक छोटी सी कहानी / उपमा

एक बार एक वृद्ध वृक्ष था, जिसने कई मौसम देखे थे। उसके पत्ते झड़ गए, शाखाएँ सूखने लगीं, लेकिन उसकी जड़ें गहरी और मजबूत थीं। वह जानता था कि वह फिर भी जीवन का स्रोत है, क्योंकि उसकी जड़ें मिट्टी में गहराई से जुड़ी थीं। उसी प्रकार, वृद्धावस्था में शरीर कमजोर हो सकता है, पर आत्मा की जड़ें गहरी और मजबूत होती हैं।

✨ आज का एक कदम

आज अपने मन को इस सत्य से जोड़िए कि आप आत्मा हैं, न कि केवल शरीर। हर बार जब मन भय या उदासी में डूबे, तो गहरी सांस लें और कहें: "मैं अविनाशी आत्मा हूँ।" यह अभ्यास आपको स्थिरता देगा।

🧘 भीतर झांके कुछ क्षण

  • क्या मैं अपने शरीर के परिवर्तन को स्वीकार कर पा रहा हूँ?
  • क्या मैं अपनी आत्मा की अमरता पर विश्वास कर सकता हूँ?
  • इस क्षण में मुझे कौन-सी छोटी-सी खुशी महसूस हो रही है?

🌼 जीवन के अंतिम पृष्ठों में भी उज्ज्वलता बनी रहे
साधक, वृद्धावस्था जीवन का एक अनमोल अध्याय है, जिसमें अनुभव, शांति और आत्मज्ञान का प्रकाश होता है। भगवद गीता की शिक्षाएँ हमें यही बताती हैं कि मनोवृत्ति में स्थिरता, धैर्य और आत्मा के ज्ञान से हम इस समय को भी दिव्य बना सकते हैं। तुम अकेले नहीं हो, यह यात्रा सभी ने की है और तुम्हारा भी मार्ग प्रकाशमान होगा।
शुभकामनाएँ और स्नेह सहित।

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