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गीता का कार्यस्थल राजनीति पर क्या दृष्टिकोण है?

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गीता का कार्यस्थल राजनीति पर क्या दृष्टिकोण है?

नेतृत्व की गीता: कर्मभूमि पर राजनीति की समझ
साधक,
जब हम राजनीति की बात करते हैं, तो अक्सर सत्ता, संघर्ष और स्वार्थ की छवि हमारे मन में उभरती है। परंतु भगवद् गीता हमें राजनीति को केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि एक उच्चतम कर्मभूमि के रूप में देखने का दृष्टिकोण देती है। यह राजनीति को एक धर्म, कर्तव्य और सेवा के रूप में समझने की प्रेरणा देती है। आइए, इस पावन ग्रंथ के प्रकाश में राजनीति और नेतृत्व की गहराई को समझें।

🕉️ शाश्वत श्लोक

श्लोक:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(भगवद् गीता 2.47)
हिंदी अनुवाद:
हे अर्जुन! तुझे केवल कर्म करने का अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्म के फल को अपना उद्देश्य न बना, और न ही कर्म न करने में आसक्त हो।
सरल व्याख्या:
राजनीति में जब हम नेतृत्व करते हैं, तब हमारा ध्यान केवल परिणाम पर केंद्रित हो जाता है। गीता हमें सिखाती है कि हमारा कर्तव्य कर्म करना है, फल की चिंता छोड़ देनी चाहिए। राजनीति एक कर्मभूमि है जहाँ निष्पक्षता और निष्ठा से कर्म करना ही श्रेष्ठ नेतृत्व है।

🪬 गीता की दृष्टि से मार्गदर्शन

  1. कर्तव्य का पालन सर्वोपरि: राजनीति में चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, अपने धर्म और कर्तव्य से विचलित न होना।
  2. निष्पक्षता और न्याय: सत्ता का दुरुपयोग न करें, न्याय और सत्य का पालन करें।
  3. अहंकार और स्वार्थ से बचाव: सत्ता में रहते हुए अहंकार से दूर रहें, जनसेवा को सर्वोच्च मानें।
  4. संतुलित मन: सफलता या विफलता से विचलित न हों, मन को स्थिर रखें।
  5. सेवा भाव: राजनीति को केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि समाज की सेवा के लिए अपनाएं।

🌊 मन की हलचल

शिष्य, राजनीति में कदम रखने पर मन में कई सवाल उठते हैं — क्या मैं सही कर रहा हूँ? क्या मेरी नीतियाँ न्यायसंगत हैं? क्या सत्ता का लालच मुझे भ्रष्ट कर देगा? ये प्रश्न स्वाभाविक हैं। गीता कहती है, "मन को स्थिर करो, कर्म करो, फल की चिंता मत करो।" जब मन अशांत होगा, तब निर्णय भी भ्रमित होंगे। इसलिए पहले अपने मन को समझो, फिर राजनीति की जटिलताओं को।

📿 कृष्ण क्या कहेंगे...

"हे अर्जुन, राजनीति एक धर्मभूमि है। यहाँ कर्म करो, बिना लोभ और द्वेष के। याद रखो, तुम केवल एक साधन हो, फल तुम्हारे हाथ में नहीं। जब तुम निष्पक्ष और धर्मपरायण रहोगे, तब सत्ता भी तुम्हारे चरित्र को नहीं हिला सकेगी।"

🌱 एक छोटी सी कहानी / उपमा

एक बार एक राजा के पास दो सलाहकार थे। एक हमेशा सत्ता के लिए चालाकी करता, दूसरा न्याय और सेवा के लिए। जब संकट आया, तो राजा ने देखा कि चालाक सलाहकार उसे भ्रमित कर रहा था, पर न्यायप्रिय सलाहकार ने सही मार्ग दिखाया। राजा ने समझा कि सच्चा नेतृत्व सत्ता नहीं, सेवा है। राजनीति भी ऐसी ही होती है — जो सेवा भाव से चलती है, वही स्थायी होती है।

✨ आज का एक कदम

आज अपने कार्यस्थल या समाज में एक ऐसा निर्णय लें, जो केवल अपने लाभ के लिए न हो, बल्कि दूसरों के हित में भी हो। छोटा सा कदम, पर नेतृत्व की शुरुआत।

🧘 भीतर झांके कुछ क्षण

  • क्या मैं अपने कर्मों को निष्ठा और सेवा भाव से कर रहा हूँ?
  • क्या मैं सत्ता या पद के मोह में अपने धर्म से दूर तो नहीं हो रहा?

🌼 राजनीति में धर्म और कर्म का संगम
शिष्य, राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, यह कर्मभूमि है जहाँ धर्म, न्याय और सेवा की विजय होती है। गीता का संदेश है — कर्म करो, फल की चिंता छोड़ो, और सच्चे नेतृत्व का मार्ग अपनाओ। तुम्हारा कर्म ही तुम्हारा सबसे बड़ा अस्त्र है। विश्वास रखो, और इस पावन कर्मभूमि में अपने धर्म का पालन करते रहो।
शुभकामनाएँ।
— आपका गुरु

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